Saturday 6 September 2014

साहित्य से निर्वासित

बचपन से ही कुछ गीत ज़ुबान पर चढ़ गए थे । यह गीत कितने गहन अर्थों और संवेदनाओं को अपने भीतर समेटे हुए हैं यह धीरे-धीरे समझ में आया । नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है’ (बूट पालिश), ‘मेरा जूता है जापानी’ (श्री 420), ‘है प्रीत जहां की रीत सदा’ (उपकार), ‘प्यार किया तो डरना क्या’ (मुगले-आज़म), ‘कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे’ (पूरब और पश्चिम) जैसे अनेक गीत मेरे मन और परिवेश में ग़ोया बजते ही रहे हैं । विद्यालयों में गायी जाने वाली ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ (दो आंखें बारह हाथ), ‘हमको मन की शक्ति देना’ (गुड्डी), ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता’ (अंकुश) जैसी प्रार्थनाएं, फिल्मों के ही गीत हैं, यह बहुत बाद में जाकर पता चला ।
साहित्य में मेरी दिलचस्पी की शुरूआत ही सिनेमा के गीतों के माध्यम से हुई थी, यह मेरी दृढ़ मान्यता रही है । लेकिन जब विधिवत रूप से साहित्य अध्ययन  में जुटी तब यह जानना निराशाजनक था कि ये गीत साहित्य और साहित्यिक आलोचना की दुनिया में चिर वर्जित रहे हैं । इन गीतों की हिन्दी साहित्य के इतिहासों में एक-आध अपवाद को छोड़ दें तो कहीं चर्चा तक नहीं मिलती है । मतलब साफ है कि सिनेमा के इन गीतों को साहित्य नहीं समझा जाता जबकि गीत साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा रहा है । यानि यह समझा और समझाया जाता रहा है कि यदि कोई गीत सिनेमा के लिए नहीं लिखा गया हो तो वह साहित्य है लेकिन सिनेमा का हिस्सा बनते ही वह साहित्य नहीं रह जाता !!
सच तो यह है कि आधुनिक विधाओं में सबसे पहले हिन्दी सिनेमा ने ही प्रभावी ढंग से उथल-पुथल मचाई थी । इसका उल्लेख किया जाना बहुत ज़रूरी है कि परदे के हिमायती समाज में सिनेमा ने औरतों को परदे पर ले आने का दुस्साहसिक काम किया था । यह भी अब एक ऐतिहासिक तथ्य बन गया है कि, सिनेमा में तब जब अच्छे घरों की स्त्रियों का आना बहुत कठिन था, तब सिनेमा मे अभिनय की जिम्मेदारी उन खानदानों की औरतों ने उठाई थी जिनकी पीढ़ियाँ बदनाम होकर भी गीत-संगीत और नृत्य को अपने भीतर बचाए हुए थी , आज की नई पीढ़ी के लिए इस तथ्य से ताल-मेल बैठा पाना बहुत कठिन होगा । निश्चित रूप से यह घटना स्त्री मुक्ति के इतिहास में एक बड़ी घटना थी । स्त्रियों के सिनेमा में आगमन से पुरुष-सत्ता को जो चुनौती मिली थी उस चुनौती को स्वीकार नहीं करना पौरूष के खिलाफ था । पुरूषों के पास एक सदियों से आजमाया हथियार है और वह यहाँ भी अपनाया गया । माने यह कि सिनेमा की दुनिया एक बदनाम दुनिया की तरह प्रचारित की जाने लगी और यह हथियार यहाँ भी अचूक साबित हुआ । यह कहना ग़लत नहीं होगा कि साहित्य की दुनिया में हिन्दी सिनेमा के गीतों की उपेक्षा किये जाने का सबसे बड़ा कारण सिनेमा की दुनिया के प्रति घृणा का भाव रखना रहा है । सिनेमा के व्यावसायिक स्वाभाव के कारण भी सिनेमा को दोयम दर्जे का समझा गया । भवानी प्रसाद मिश्र ने जब आर्थिक जरूरतों के लिए सिनेमा में कुछ गीत लिखे थे तो उनकी बहुत फजीहत हुई थी । उनकी इस पीड़ा को उनकी कविता- गीत फ़रोश में महसूस किया जा सकता है । जी हाँ हुजूर मैं गीत बेचता हूँ कहता हुआ कवि दरअसल एक जड़ साहित्यिक समाज पर व्यंग्य भी कर रहा है । दुखद यह रहा कि हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना ने भी हिन्दी सिनेमा के गीतों की घोर उपेक्षा की है , और उनकी ताक़त को पहचानने में भारी भूल की है । आज भी सिनेमा के गीतों की पहुँच समाज के जिस निचले तबक़े तक आसानी से हो जाती है तथाकथित साहित्यिक रचनाओं के लिए वह सपने जैसा है । 
हिन्दी सिनेमा के गीतों के साहित्यिक महत्व पर मैंने एम.फिल. शोधकार्य किया है । हिन्दी विभागों में इस तरह के शोध प्रस्तावों को स्वीकृति मिलने में जो कठिनाइयाँ आती हैं, वह अलग से एक शोध का विषय है । फ़िलहाल शोध कार्य पूरा हो चुका है । जब कभी मन में आएगा इस विषय पर लिखती रहूँगी । हिन्दी सिनेमा के गीतों की यात्रा , उनके साहित्यिक महत्व और गीतकारों के रचनात्मक संघर्षों पर बात करते हुए जब-तब यहाँ हाज़िर हो जाउंगी । बहरहाल इस एक गीत को सुनिए और सोचिए कि अब तक आपका जिन महत्वपूर्ण पद्य रचनाओं से परिचय रहा है उनसे इसका महत्व क्या रत्ती भर भी कम है !! 




# Songs of Hindi Cinema, Cinema/Film and Literature, Literary importance of Hindi film songs

3 comments:

  1. यही लेख अापका आज जनसत्‍ता में पढ़ा। बहुत सुन्‍दर। लिखते रहें।

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  2. शुक्रिया विकेश जी ।

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  3. प्रिंयका जी जैसा कि आपने अपने लेख में लिखा है कि हिन्दी सिनेमा के गीतों के साहित्यिक महत्व पर आपने काम किया है। अगर आपके लिए संभव हो तो मैं उस शोध कार्य को देखना चाहूंगा। मैं शोध पत्रिका जनमीडिया से जुड़ा हूं। अगर शोध कार्य जनमीडिया के लिए उपयुक्त हुआ तो हम उसे प्रकाशित करने की भी कोशिश कर सकते है। जन मीडिया के बारे में जानने के लिए इस लिंक को देख सकते है। http://mediastudiesgroup.org.in/
    संजय कुमार बलौदिया

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