Monday 19 January 2015

स्त्री-असंवेदी चिंताएँ

[भारत की लगभग सवा अरब कुल आबादी की आधी आबादी यदि महिलाओं को मान लिया जाए (जब कि महिलाओं का अनुपात पुरुषों से कम है।) तो महिलाओं की तकरीबन 60 करोड़ की आबादी ठहरती है। इसे मासिकधर्म की प्रक्रिया से पूर्व की आबादीमासिकधर्म की प्रक्रिया में शामिल आबादी और मासिकधर्म से निवृत्त आबादी के विभिन्न औसत काल खंडों 1236 और 24(यह सामान्यतः दो-तीन वर्ष कम या अधिक हो सकता है।) में बाँटने पर 1:3:2 का अनुपात बनता है। इस तरह कुल मिलाकर 60 करोड़ की आधी आबादी यानी 30 करोड़ महिलाओं को मासिक धर्म की प्रक्रिया से गुजरने वाली आबादी माना जा सकता है। इस गणना से प्रति दिन औसतन 1 करोड़ महिलाओं को मासिक स्राव होना शुरू होता है। मासिक स्राव की प्रक्रिया सामान्यतः चार से पाँच दिनों की होती हैइस तरह प्रति दिन औसतन चार करोड़ महिलाएँमासिक धर्म की प्रक्रिया से गुजर रही होती हैं। अब 12 प्रतिशत महिलाओं के सेनेटरी नेपकीन इस्तेमाल करने के तथ्य की ओर लौटें तो यह आबादी 48 लाख होती है।  प्रति स्त्री प्रति दिन चार से पाँच नेपकीन के इस्तेमाल को औसत माने तो प्रति दिन तकरीबन 2 से ढाई करोड़ नेपकीन इस्तेमाल किये जाएँगे जो कि प्रति घंटे एक करोड़ नेपकीन पैड डंप किये जाने के आँकड़े के आगे कहीं नहीं ठहरते।]
साभार -बीबीसी हिन्दी
पिछले दिनों बीबीसी ने मासिक धर्म से सम्बंधित रिपोर्टों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की थी। रिपोर्टों की इस श्रृंखला का उद्देश्य समाज में मासिक धर्म सम्बंधी धारणाओं, स्त्री स्वास्थ्य और जागरूकता पर बात करना था।  इसी कड़ी में प्रस्तुत एक लेख में महिलाओं के द्वारा प्रयोग किये जाने वाले सेनेटरी नेपकिन्स को पर्यावरण के लिए हानिकारक बताया गया। बताया गया कि इनमें प्लास्टिक और कुछ अन्य ऐसे तत्व इस्तेमाल किये जाते हैं जिन्हें नष्ट होने में तकरीबन 500 साल लग जाते हैं। इसी तथ्य के आधार पर सेनेटरी नेपकिन के प्रयोग को हतोत्साहित करते हुए महिलाओं को पारंपरिक तरीकों की ओर लौटने की सलाह दी गयी। पारंपरिक तरीकों की ओर लौटने का अर्थ है ‘कपड़े’ के उपयोग की तरफ लौटना ।
आज से 10-12 साल पहले , मुझे अच्छी तरह याद है कि महिलाओं में सेनेटरी नैपकिन के उपयोग को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से उसके फायदे और कपड़े के उपयोग से होने वाले नुकसान के बारे में उन्हें समझाने स्वास्थ्य सम्बंधित स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़ी स्त्रियाँ घर-घर आया करती थीं। वे हैंडबुक्स भी देकर जाती थी, जिनमें कहानियों की शक्ल में यह समझाने का प्रयास होता था कि कपड़े के प्रयोग से किन-किन परेशानियों का सामना महिलाओं को करना पड़ता है। वे घर-घर मुफ्त में सेनेटरी नैपकिन का वितरण भी किया करती थीं। मुझसे अपने अनुभव साझा करने वाली स्त्रियों और स्वयं के अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकती हूँ कि कपड़े की तुलना में सेनेटरी नेपकिन बहुत अधिक सुविधाजनक होता है। कपड़े के प्रयोग से होने वाली कठिनाइयों पर यदि कुछ महिलाओं से बात करने के बाद ईमानदारी से यह रिपोर्ट तैयार की जाती तो निश्चित रूप से इसका स्वर कुछ और होता! बीबीसी की इस रिपोर्ट में कपड़े को धो कर दुबारा प्रयोग करने की भी सलाह दी गयी है। इस प्रक्रिया से गुजरना स्त्रियों के लिए कितना तकलीफदेह और कठिन होता है, रिपोर्ट तैयार करते हुए इस पक्ष पर विचार करना भी जरूरी नहीं समझा गया। कपड़े की सफाई में कसर रह जाने पर जीवाणु संक्रमण (Bacterial Infection) के खतरे भी बढ़ जाते हैं ।
कपड़े के प्रयोग से होने वाली व्यावहारिक दिक्कतों को समझे जाने की जरूरत है। जब औरतें प्राय: घरों तक सिमटी रहती थीं, तब कपड़े का प्रयोग करते हुए उतनी ही परेशानियों का सामना उन्हें नहीं करना पड़ता था जितना कि अब करना पड़ता है। अर्थ यह है कि अब प्रायः महिलाएँ घर से बाहर निकलने लगी हैं। वे रोजाना साइकिल, रिक्शा, स्कूटर, बसों और ट्रेनों में सफर करती हैं। कई बार उन्हें पैदल भी दूरियाँ तय करनी पड़ती हैं। कपड़े में गीलापन सोखने की क्षमता बहुत ही कम होती  है। गीलेपन का होना और उसे महसूस करना अस्वास्थ्यप्रद और असहज करने वाला होता है। इस्तेमाल किये जाने वाले कपड़े में सोखने की कम क्षमता के कारण बाहरी कपड़ों पर धब्बे लगने की पर्याप्त आशंका भी होती है। सेनेटरी नैपकिन के प्रयोग से इन आशंकाओं से बहुत हद तक मुक्ति मिलती है। पर्यावरण के पहलू पर बात करते हुए भी यह ध्यान नहीं रखा गया कि इस्तेमाल किये गये कपड़े को धोने के लिए सामान्य कपड़ों की तुलना में बहुत अधिक पानी की दरकार होती है। जल संकट के दौर में इस पहलू को नजर अंदाज करने से बचना चाहिए।
इस श्रृँखला की पहले की एक रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन का हवाला देते हुए इस तथ्य का उल्लेख किया गया है कि विश्व भर में महिलाओं को गर्भाशय-मुख में होने वाले कैंसर का 27 फ़ीसदी भारतीय महिलाओं को होता है , उनमें से अधिकांश मामलों का कारण मासिक धर्म के दौरान साफ़-सफाई का अभाव होता है। इसी रिपोर्ट में कपड़े के उपयोग और इसके फिर से इस्तेमाल किये जाने में होने वाली परेशानियों के कुछ अनुभव भी दर्ज किये गये हैं। जबकि बाद की रिपोर्ट में पहले की रिपोर्ट से विरोधाभास रखने वाली कई बातें की गयी हैं। पारंपरिक तरीके की ओर लौटने से लेकर आंकड़ों तक में भी यह विरोधाभास दिखाई देता है। हालाँकि इस रिपोर्ट में भी भारत में 12 प्रतिशत महिलाओं के ही सेनेटरी नेपकिन इस्तेमाल करने की बात की गयी है लेकिन आगे एक अनाम रिसर्च का हवाला देते हुए चौंकाने वाले तथ्यों को प्रस्तुत किया है। इसके अनुसार  भारत में  हर घंटे एक करोड़ सैनिट्री पैड लैंडफ़िल में डंप किए जा रहे हैं। यह तथ्य आधारहीन प्रतीत होता है। ऐसा लगता है जैसे प्रदूषण की समस्या को भयानक रूप में प्रस्तुत करने के लिए ऐसा किया गया है। 
इस बात से आपत्ति नहीं है कि सेनेटरी नेपकिन पर्यावरण के लिए हानिकारक हो सकते हैं। पर्यावरण प्रदूषण के तमाम बड़े और शौकिया चीजों के उत्पादन पर सवाल उठाने और इस प्रसंग में फर्क है। आपत्ति स्त्रियों की व्यावहारिक दिक्कतों को पूरी तरह नज़र अंदाज किये जाने से है। आपत्ति तथ्यहीन और अवैज्ञानिक बातों से है। आपत्तिजनक यह है कि बीबीसी जैसी प्रामाणिक मानी जाने वाली संस्था की संपादकीय टीम स्त्री के प्रति असंवेदनशीलता से भरी रिपोर्ट को प्रकाशित करती है। असंवेदनशीलता के आगे भेदभाव या एक हद तक घृणा से भरी रिपोर्ट जैसे पदों का प्रयोग भी अनुचित नहीं होगा। जो इस रिपोर्ट के शीर्षक-इसे छूने के बाद रोटी नहीं खाई जातीके अतिरिक्त रिपोर्ट के उस कोण तक पर लागू होते हैं, जहाँ कूड़ा बीनने वाले कुछ लोगों के द्वारा इस्तेमाल के बाद फेंके जाने वाले सेनेटरी नेपकिनों से जबरदस्त घृणा से भरी प्रतिक्रिया को बहुत ज्यादा महत्व देते हुए जगह दी गयी है। ऐसी प्रतिक्रियाओं को महत्व दिये जाने की सराहना की जा सकती थी, यदि इससे जुड़ा नज़रिया सकारात्मक होता। 
हमें इस बात को मान लेना चाहिए कि मासिक धर्म पर बात करने वाले पुरुष हो या स्त्रियाँ कमोबेश एक ही मानसिकता से बंधे होते हैं। उनमें समान रूप से मासिक स्राव के प्रति जुगुप्सा का भाव होता है। स्त्रियों को दोयम दर्जे का मनुष्य समझने की मानसिकता भी बहुत हद तक दोनों में होती है।  खेद सहित कहना पड़ता है कि बीबीसी के जिस लेख पर यहाँ चर्चा की गयी है वह घृणा और स्त्रियों को दोयम समझने वाली मानसिकता का ही जाने अनजाने प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए इस लेख के केन्द्र में पर्यावरण सम्बंधी चिंताएँ हैं या कूड़ा बीनने वाले लोगों के प्रति संवेदना - इस बात को मानना कठिन हो जाता है।  
 जरूरत है कि सेनेटरी नैपकिन बनाने वाली कंपनियों को ऐसे दिशा निर्देश दिये जाएँ कि वे ऐसे नैपकिन बनाने की दिशा में काम करें जो इको फ्रेंडली हों। कुछ गैर सरकारी संगठन इस तरह का काम कर भी रहे हैं। उन्हें प्रोत्साहित किये जाने की जरूरत है। इस दिशा में अनुसंधान, उत्पादन और वितरण के कार्य को सरकार गंभीरता से ले। आज भी निजी कंपनियों द्वारा बनाए नेपकिन न तो सर्वसुलभ हैं और न ही सस्ते।  ग्रामीण समाज में इसके प्रति जागरूकता भी बेहद कम है। इन सब पर ध्यान देना आवश्यक है।
कूड़े का निपटान एक बड़ी समस्या है। इस तरह के कूड़े में नेपकिन ही नहीं कई प्रकार के अन्य जैविक और अजैविक कूड़े हैं। पर्यावरण को हानि पहुँचाए बिना इनके उचित प्रबंध की ओर गंभीरता से ध्यान दिये जाने की जरूरत है। इस सम्बंध में बातें बहुत होती हैं और काम बहुत कम। आजादी के लगभग सात दशक बाद भी कूड़ा बीनने वाले बच्चों और वयस्कों के लिए वैकल्पिक रोजगार और पुनर्वास की व्यवस्था नहीं कर पाना किसी भी देश के लिए साझी शर्म का विषय है।
स्त्रियों के प्रति असंवेदनशील होकर उन्हें मुश्किल से मिली सुविधाओं के समुचित विकल्प पर बात किये बिना अन्य किसी भी प्रकार की चिंता व्यक्त करना बेमानी है। स्त्रियाँ किसी भी शर्त पर अपनी आजादी की ओर बढ़ते क़दमों को वापस नहीं ले सकती हैं।
साभार-golfer-pro.com



1. बीबीसी के उल्लखित 18.12.2014 को प्रस्तुत लेख का लिंक इसे छूने के बाद रोटी नहीं खाई जाती

2. बीबीसी के कुछ अन्य मासिक धर्म सम्बंधी रिपोर्टों के लिंक :
(I) औरतों की माहवारी : कब तक जारी रहेगी शर्म ? 
(II) ग्रामीण महिलाओं को सेहत का तोहफ़ा



# BBC Hindi insensitive reporting  for Women , Menstruation  Cycle,  Problems of Dumping Sanitary Napkins, Environmental issues

1 comment:

  1. इस नज़रिये से भी इस पहलू पर विचार करने की जरूरत है।

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