उस लड़की को मन ही मन मैं खूब कोसती रही
। अगर वो उस तमाचे का जवाब देने में सक्षम नहीं थी तो कम से उसके प्रतिकार में
वहां से उठकर तो जा ही सकती थी ! लेकिन वो वहीं जड़ हो गयी थी । यह अक्सर हो जाता है कि मन में आए प्रतिकार की भावना को
हम अमली जामा नहीं पहना पाते हैं । सरेआम तमाचा खाने के बाद आहत और
अपमानित स्त्री तत्काल वाजिब प्रतिक्रिया दे सके, यह बड़ा कठिन होता है
। इसीलिए शायद मर्दों के मन में ये खयाल घर कर जाता है कि औरते पिटने के लिए ही
होती हैं ।
विजिटिंग हॉल में कुछ लड़के-लड़कियों का
एक समूह भी बैठा हुआ था । वे भी इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे । घटना के कुछ समय
बाद कुछ लड़कियां और आयीं और उस समूह में शामिल हो गयीं । पहले से मौजूद लड़कियाँ अभिनय सहित
उन्हें बताने लगी कि कैसे उस लड़के ने लड़की को तमाचा मारा । कुछ देर बाद हॉल में तमाचे
की उस गूँज की पुनरावृत्ति हुई । चौंक कर मैंने देखा तो यह उसी अभिनय का हिस्सा था
। दोनों हथेलियों के कमाल से बताया जा रहा था कि तमाचे का घनत्व क्या था । इसके बाद पूरा समूह ज़ोर का ठहाका लगा रहा था
। यह कैसी मूर्खता थी ! उन लोगों की
असंवेदनशीलता उस लड़के की क्रूरता से भी बड़ी लग रही थी । वह लड़की अपने अपमान की
इस पुनरावृत्ति को भी प्रतिक्रियाहीनता के साथ झेलने के लिए विवश थी ।
मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे । किसी
अनपढ़ व्यक्ति द्वारा इस तरह का क्रूर और असंवेदनशील व्यवहार किये जाने पर हम मान
सकते हैं कि वह ऐसा ज्ञान के अभाव में कर रहा है । लेकिन विश्विद्यालय में पढ़ रहे
एक नवयुवक का व्यवहार ऐसा हो तो क्या कहेंगे ! दरअसल किताबों का ज्ञान हमें समझदार
और संवेदनशील बना देने की गारंटी नहीं देता है । यह भी हमें प्रयत्नपूर्वक हासिल
करना होता है । ठीक वैसे ही जैसे हम सब अंग्रेजी भाषा और तमाम पाश्चात्य फैशन हासिल
करते हैं । यह अलग बात है कि बाद की दोनों चीजें हासिल करना हमारी प्राथमिकता में
है और संवेदनशीलता से हम जितने दूर हों हमारी सफलता की संभावना उतनी ही बढ़ जाती
है ।
वह लड़की अब तक उस लड़के की पत्नी नहीं बनी है । पता नहीं वह अब भी उसकी पत्नी बनने से इंकार कर पाएगी या नहीं । लेकिन तय है कि
यदि वह ऐसा नहीं कर पाई तो ताउम्र उसे क्रूरता को चुपचाप सहते हुए गुजार देना होगा
। आखिर ऐसी क्या मजबूरी हो सकती है कि इतना अपमानित होकर भी वह दोषियों की तरह
बैठी रही ?
क्या वह उसी स्त्री जाति का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही थी, जिसे हजारों सालों से पितृसत्ता ने गढ़ा है, और जिस
साँचे से बाहर निकल सकने में न जाने कितने साल और लग जाएँगे ! उन लड़के-लड़कियों का समूह
क्या हमारे पूरे समाज के असंवेदनशील चरित्र का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा था ?
और क्या मेरे मित्र और मैं स्वयं जो दूर बैठे उस लड़के को मन ही मन गरियाते
रहे, उस लड़की को कोसते रहे और उस समूह को घृणा भरी नज़रों
से देखते रहे, क्या उस मूक समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे
थे जो संवेनशीलता के बावज़ूद अपने सामने होते अत्याचार, अपमान
के प्रति उठकर खड़े नहीं हो सकते बस दूर से उसकी आलोचना भर कर सकते हैं ।
यह लिखना अपनी उस ग्लानि से मुक्ति
पाने का प्रयास नहीं है । मूक के बजाय मुखर होकर ही इस तरह के ग्लानिबोध से बचा जा
सकता है । वह ग्लानि बोध ही है कि उस तमाचे की गूँज अभी तक मेरे कानो में ज्यों की
त्यों बसी हुई है । और बार-बार मुझे ये महसूस करने पर मजबूर कर रही है कि वो तमाचा
उस लड़की के गाल पर नहीं बल्कि मेरे ही गाल पर पड़ा है । उस समूह ने जो असंवेदनशीलता
दिखाई थी, उसकी क्रूरता भी मुझे अपने पर बीतती हुई लगती है । यह कहना नाटकीय
होगा, कि यकीन नहीं होता कि यह सब उस परिसर के एक सार्वजनिक स्थल पर घटित हो रहा था, जिसे विश्वविद्यालय कहते हैं !!
# Violence against women, In Universities, Self respect of women in relationships, Patriarchy in educated people
मूकदर्शकों की कोई कमी नहीं है। गंभीर बात को भी हंसी मजाक में उड़ना आजकल जैसे फैशन हो गया है युवा पीढ़ी का, जो गंभीर सोच का विषय है। . ऐसे मौको पर चुपचाप मूकदर्शक बने रहने दुखद स्थिति है। आपको कुछ न कर पाने की ग्लानि होना लाज़मी है क्योंकिं आप संवेदनशील हैं जो सबसे अच्छी बात है क्यूंकि आज संवेदनहीन होते समाज को देखा बहुत दुःख होता है। .
ReplyDeleteआपका यह लेख जनसत्ता में पढ़ा तो ब्लॉग पर आयी
बहुत अच्छा आपका ब्लॉग पढ़कर
यूँ ही लिखते रहिये यह समाज को अच्छी राह दिखाने का सबके अच्छा उपाय है
हार्दिक शुभकामनाएं
मूकदर्शकों की कोई कमी नहीं है। गंभीर बात को भी हंसी मजाक में उड़ना आजकल जैसे फैशन हो गया है युवा पीढ़ी का, जो गंभीर सोच का विषय है। . ऐसे मौको पर चुपचाप मूकदर्शक बने रहने दुखद स्थिति है। आपको कुछ न कर पाने की ग्लानि होना लाज़मी है क्योंकिं आप संवेदनशील हैं जो सबसे अच्छी बात है क्यूंकि आज संवेदनहीन होते समाज को देखा बहुत दुःख होता है। .
ReplyDeleteआपका यह लेख जनसत्ता में पढ़ा तो ब्लॉग पर आयी
बहुत अच्छा आपका ब्लॉग पढ़कर
यूँ ही लिखते रहिये यह समाज को अच्छी राह दिखाने का सबके अच्छा उपाय है
हार्दिक शुभकामनाएं
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ReplyDeleteबहुत शुक्रिया कविता जी :)
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