Friday, 18 December 2015

सलमान-प्रेम और चौकसे की फैंटेसी

जयप्रकाश चौकसे का दैनिक भास्कर में प्रकाशित होने वाला स्तम्भ मैं नियमित रूप से पढ़ती हूँ । उनकी लेखन शैली और नज़रिया अब तक मुझे बहुत प्रभावित करते रहे हैं । लेकिन 11 दिसम्बर के ‘दैनिक भास्कर’ में प्रकाशित उनकी टिप्पणी से मैं हतप्रभ हूँ । ‘हिट एंड रन’ मामले में अदालत द्वारा सलमान खान को बरी किये जाने के फैसले पर की गयी उनकी टिप्पणी से मैं एक हद तक आहत भी हुई हूँ ।
                 जयप्रकाश चौकसे
सलमान खान को अदालत द्वारा दोषमुक्त किये जाने को उन्होंने  ‘वनवास’ के समाप्त होने से जोड़ा है । ‘13 वर्ष की यात्रा का लेखा-जोखा’ शीर्षक टिप्पणी में उन्होंने लिखा है कि इन 13 वर्षों में सलमान के परिवार ने बहुत सी यातनाएं झेली हैं । हर सुनवाई पर उनकी माँ का बेहद बुरा हाल रहा है और पिता चूँकि पठान थे तो वे अपनी पीड़ा छुपा जाते थे।  
सलमान खान और उनके परिवार के लिए उनकी सहानुभूति अश्लील होने से बच जाती यदि वे सलमान खान की पीड़ा को उस आम आदमी की पीड़ा से नहीं जोड़ते, जो न्याय के लिए वर्षों से अदालत के चक्कर काट रहा है ! वे लिखते हैं – “सलमान की तरह अनगिनत आम लोग हैं, जिन्होंने बरसों कोर्ट के चक्कर लगाये हैं और गलत ढंग से सज़ायाफ्ता लोगों के परिवारों ने जो यातना सही उसका कोई बहीखाता नहीं है ।”
क्या वास्तव में सलमान को इसे लेकर कुछ झेलना पड़ा ? क्या उन्हें फ़िल्में मिलनी बंद हो गयीं ? उनकी फिल्मों को लोगों ने देखना छोड़ दिया ? क्या सलमान और उनके परिवार की आमदनी और पूँजी की बराबरी सैकड़ों आम आदमियों की पूँजी और आमदनी भी मिलकर कर सकती है ? क्या सलमान की तरह की कानूनी सहायता किसी आम आदमी को मिलती है ? क्या यह सच नहीं है कि सलमान की तरह का आरोपी आम आदमी बिना किसी मुक्कदमें, बिना किसी पैरवी के वर्षों जेल में गुजार देता है न कि सलमान की तरह शानदार छुट्टा जिन्दगी जीते हुए 'दबंग' बनाता है, करोड़ों कमाता है और 'बिग बॉस' होस्ट करता है ? तो फिर कैसे सलमान का दुःख आम आदमी के दुख से जुड़ता है !
उनके अनुसार 13 वर्ष तक खान परिवार द्वारा झेली गयी यातना का कोई लेखा जोखा नहीं है । सलमान की तारीफों के पुल बाँधने के साथ ही चौकसे जी ने सलमान के पिता सलीम की भी बहुत तारीफ़ की है । दिक्कत तारीफ़ से नहीं है । दिक्कत इस बात से है कि तारीफ आखिर किस मामले में की जा रही है ! 
कांस्टेबल रवीन्द्र पाटिल

जहाँ सड़क पर सो रहे कुचल दिये गये व्यक्ति और उसके परिवार की तेरह वर्ष और उसके बाद भी लगातार की जारी यातना पर विचार किया जाना चाहिए था, जहाँ अपने बयान में सलमान को गुनाहगार बताने वाले चश्मदीद कांस्टेबल रवीन्द्र पाटिल के अवसाद में जाने और फिर मौत पर बात की जानी चाहिए थी, जहाँ अदालत के निर्णय का हवाला देते हुए आम आदमी के लिए न्याय के दुर्लभ होने पर बात की जानी चाहिए थी, जहाँ धनाढ्य फिल्मी हीरो के भीतर के कायर और अपराधी पर बात की जानी चाहिए थी, वहाँ चौकसे जी ने बड़ी चालाकी से पाठकों की आँखों में धूल झोंकने की मंशा से आम आदमी और सलमान खान के दुख के ‘रिसेंबलनेस’ की छद्म सरोकारी फैंटेसी रचने में अपनी उर्जा लगायी है ।
दरअसल आकर्षक और प्रभावशाली लेखन शैली का हुनर रखने वाले भी अपने लेखन में अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों को नहीं छुपा पाते हैं । चौकसे जी का सलमान खान और उनके परिवार के प्रति प्रतिबद्धता अथवा पूर्वाग्रह उनकी लेखकीय ईमानदारी पर भारी पड़ गया । मुझे लगता है कि इस बात का उन्हें कमोबेश एहसास भी रहा होगा और इसलिए ही उन्होंने सलमान खान के दुख का आम आदमी के दुख पर प्रत्यारोपण करते हुए अपने पलायन का एक सुरक्षित रास्ता बनाने की कोशिश की है ।
पूरा देश यह सोच रहा है कि उस रात फिर आखिर हुआ क्या था ? गुनहगार आखिर था कौन ? क्या कार बिना चालक के ही चल रही थी ?
मैं सोचती हूँ, ऐसे में क्या फिल्मों के मर्मज्ञ विशेषज्ञ चौकसे जी को चर्चित फिल्म ‘जॉली एलएलबी’ की भी याद नहीं आयी होगी ? उन्हें याद रहा तो बस ‘बजरंगी भाईजान’ की महानता का उल्लेख करना ! वैसे भी अब ‘हिट एंड रन’ मामले में न्याय सुनिश्चित करवाने वाला कोई ‘जॉली’ ही हो सकता है । चौकसे जी, इतनी लाचारगी भरी होती हैं हम आम लोगों की उम्मीदें जो किसी ‘जॉली’ पर टिकी होती हैं, महान लोकतंत्र के द्वारा निर्वाचित महाराष्ट्र सरकार पर नहीं !


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