Saturday 28 March 2020

कोरोना काल का कड़वा सच


महान भारत की आखिरी पंक्ति के इंसानों की किसे सुध है? जिन मजदूरों के कंधों पर शहर टिका होता है, उन्हें बेहद असुरक्षित हजारों किमी की पैदल यात्रा कर गाँव-कस्बों की ओर जाना पड़ रहा है। उनके मालिकों ने उन्हें बेसहारा छोड़ दिया, सरकारों ने मुँह मोड़ लिया और यदि अब इन्हें बसों में ठूँस ठूँस कर घर पहुँचा भी दिया गया तो उनके गाँवों-कस्बों का क्या जहाँ संक्रमण का भारी खतरा बढ़ेगा और वहाँ इलाज की न्यूनतम सुविधा भी नहीं है। क्या ऐसे रोकेंगे महामारी? ऐसे में सफल होगा लॉकडाउन?
विपदा के दिनों की भी एक अच्छी बात ये होती है कि बची-खुची धुंध भी पूरी तरह छंट जाती और सब कुछ साफ-साफ दिखने लगता है। समानता के संकल्प के साथ बढ़ने वाला देश जैसे अपना संकल्प भूल कर असमानता को ही लक्ष्य बना बैठा है। सरकारी नौकरों को लॉकडाउन के दिनों में भी भत्ते सहित उनका पूरा का पूरा वेतन बाइज्ज़त दिया जायेगा। अच्छी बात है; लेकिन बाकी लोगों का क्या अपराध है? उदाहरण के लिए कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और स्कूलों में परमानेंट और एडहॉक पढ़ाने वाली फैक्ल्टी बिना बाधा हज़ारों-लाखों का वेतन भोगेगी! उनमें से अधिकांश के लिए यह लॉकडाउन इसलिए आनंद का अवसर बना हुआ है। वहीं इन्हीं जगहों पर गेस्ट बेसिस पर चुनिंदा क्लास पाने वालों को पारिश्रमिक से तो महरूम किया ही गया है; बिना पारिश्रमिक छात्रों तक पाठ्य सामग्री वितरित करने के लिए भी बाध्य किया जा रहा है। इतना ही नहीं दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे अग्रणी विश्वविद्यालय के नॉन कॉलेजिएट या ओपन स्कूल जैसे संस्थानों ने गेस्ट फैकल्टी के पिछले सत्र के पारिश्रमिक तक का इस संकट में भी भुगतान करना अपना कर्तव्य नहीं समझा है।
मजदूरों के लिए कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं। किसानों को कोई देखने वाला नहीं। छोटे कारोबारियों का कोई रहनुमा नहीं! बेरोजगारों के प्रति किसी का कोई दायित्व नहीं। क्या इस संकट काल में किन्हीं सांसदों-विधायकों का वेतन या उनकी सुविधाएँ कम होंगी?
हम सब इस देश के नागरिक हैं, लेकिन सरकार और व्यवस्था हमारी हैसियत और स्थिति के हिसाब से हमसे व्यवहार करती है। कुछ लोग इस लॉकडाउन में कितना अच्छा खाएँ- कितना अच्छा पीएँ, कौन सा डाइट उन्हें फिट रखेगा की चिंता कर रहे हैं, तो वहीं कई लोग पानी के संकट, और भुखमरी की कगार पर हैं। सारी कवायद; सारे ताम-झाम ही समर्थ लोगों के हित में होते हैं। जो समर्थ नहीं हैं; वे भगवान भरोसे हैं। वे तमाशा हैं और वे उन चूहों की तरह भी हैं, जिन पर मनचाहा प्रयोग किया जा सकता है!

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