Sunday 5 April 2020

'शिकारा' देखने के बाद

कश्मीर का दर्द दशकों पुराना है। एक खुशहाल वादी में जो कई दशकों तक पर्यटन और हिन्दी फिल्मों की शूटिंग का पसंदीदा लोकेशन रहा- उस पर न जाने किस की नज़र लग गयी। धीरे धीरे वहाँ की फिज़ा में घृणा और असंतोष का जहर फैलता चला गया। इसके साथ ही पुलिस और फौज का हस्तक्षेप भी बढ़ता चला गया। हमारे पड़ोस के एक पाकदेश ने भी धरती की जन्नत को जहन्नुम की ओर धकेलने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी और धीरे-धीरे कश्मीर कभी नहीं सुलझने वाली समस्या की तरह स्थापित हो गया। कश्मीर दर्दगाह हो गया। दहशतगर्दी, मुठभेड़, पुलिसिया और फौजी अभियानों, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं आदि के बीच आम कश्मीरी पिसता चला गया। खैर 'दर्दगाह' ही सही इसकी अपनी अस्मिता रही है, यह गुमनाम नहीं रहा है। लेकिन इसके साथ गुमनामी की कथा भी जुड़ी हुई है।
इस दर्दगाह के बारे में सोचते हुए कई बार हम उन दर्दगाहोंके बारे में नहीं सोच पाते जो यहाँ से दरबदर हैं। वास्तव में कश्मीर समस्या में कश्मीरी पंडितों का दर्द हाशिये पर ही रहा है। एक मिथक की तरह इसके कई-कई संस्करण और कई-कई व्याख्याएँ मिलती हैं। इस समस्या की ठीक तस्वीर हमारे सामने कभी उभर ही नहीं पाई। विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म शिकाराइस स्थिति में एक सार्थक हस्तक्षेप करती है।
1990 के दशक में कश्मीर में क्या हुआ था कि कश्मीरी पंडितों को अपना खूबसूरत आशियाना छोड़ कर प्रतिकूल जलवायु वाले शहरों की ओर पलायन करना पड़ा था? वहाँ सगे-सम्बंधियों जैसे और सहजीवियों की तरह रहने वाले हिंदू-मुसलमानों के बीच विभाजन की रेखा कैसे खिंच गयी? कैसे पड़ोसी ही स्वार्थी होकर हैवानियत पर उतर आए? निर्वासित लोगों पर क्या-क्या बीती? कश्मीर की कश्मीरियत पर सिर्फ कश्मीरी मुसलमानों का हक़ है; यह कब से और क्योंकर प्रस्तावित किया जाने लगा? ऐसे कई सवालों के उत्तर इस एक फिल्म में हैं।
इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर नहीं बनायी गयी है। प्रतिशोध की भावना इस फिल्म में कहीं नहीं है। यह फिल्म कश्मीरी पंडितों की समस्या का जिम्मेदार किसी धर्म को नहीं बल्कि भटके हुए लोगों को ठहराती है। यह फिल्म वास्तव में घृणा के खिलाफ है। इस फिल्म का मुख्यपात्र अमेरिका के राष्ट्रपति को बार-बार पत्र लिखकर मिलने की इच्छा जताता है ; मिलकर वह उनसे बस इतना पूछ लेना चाहता है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में वे हथियार क्यों भेजे जो वादियों तक पहुँचकर उसके सीने को छलनी करते गए!
फिल्म इस विश्वास के साथ खत्म होती है कि एक दिन अपने ही घर में भटके हुए लोग ठौर ठिकाने पा जाएँगे और कश्मीर से निर्वासित कश्मीरी पंडित भी अपने घरों को लौट पाएँगे। एक खूबसूरत प्रेमकथा के सहारे जैसे घृणा को सात परत नीचे पाताल में दफन कर दिया गया हो। अभिनय, कहानी, फिल्मांकन सब बेहतरीन है। ऐसी फिल्में उजाले की ओर ले जाती हैं।

No comments:

Post a Comment